सामने तुम, देखती हूँ दिल के पर्दे पर
तुम प्रदीप्त, निहारती हूँ अपलक तुम्हें
आंखों में समा बंद करती हूं पलक
गिरा लेती हूं इसलिए कि तुम बंद रहे आओ भीतर
गिरफ़्त इसतरह कि यही है तुम्हारा संसार
तुम्हें यूं कैद कर कब जाना ?
यह जीत है मेरी या हार जाना ख़ुद
जीत हार के इस द्वंद्व में बस
तुम्हें देखना ही है एक अंतहीन क्रीड़ा
कहो तो यही है जीत और यही हार ।
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-