आना | कविता : शुचि मिश्रा | ShuchiMishraJaunpur
जब आने पर लिखी हैंबहुत से कवियों ने कविताएंतब क्या मुझेतुम्हारे आने पर नहीं लिखना चाहिए मेरे ‘आना’ लिखने के…
Poetry/ Writer, Jaunpur (U.P)
जब आने पर लिखी हैंबहुत से कवियों ने कविताएंतब क्या मुझेतुम्हारे आने पर नहीं लिखना चाहिए मेरे ‘आना’ लिखने के…
पेशानी परतुम्हारे होंठों केस्पर्श से जाना किछुआ जा सकता हैआत्मा कोइस तरह भी…..
ख़त पढ़ने का मेरा तरीक़ा है यहसबसे पहले मैं दरवाजे़ पर ताला लगाती हूँऔर उसे खींचकर आश्वस्त होती हूँक्योंकि उसके…
एक लहर ले जाती है मुझेअपने संगनदी हो जाती हूँ मैं एक सुरसंगीत बनता हुआ खो जाता है एक शब्दऔर…
किसी भी दिन को याद कियातुम्हारा स्मरण हो आयागुनगुनाया कोई भी राग वह प्रेमराग हुआगाया जो भी गीत, हुआ प्रेमगीत…
जो असंभव थासंभव हुआ लगभगकि रात की नदीमौन साधे बह गई आया दबे पाँव सूरजखबर ही न हुईदिन के पसर…
जैसे पूरे ब्रह्मांड में एक सुराख़ खोजना हो जो किसी को न हो पता; ऐसा दरवाज़ा और खुल जाए वह…
पर्याप्त-अपर्याप्त, स्वादिष्ट और स्वादहीन जो भी है जनता की रोटी है न्याय दुर्लभ होती है जब; भूख होती है तब…
संपन्न घरों के बच्चों-सी हुई मेरी परवरिश गले में कॉलर बाँध माँ-पिता ने खूब ध्यान रखा लालन-पालन कर मुझे किया…
जैसे नमक के साथ रोटी खाना ठीक ऐसा ही है तुम्हें प्रेम करना ज्वर में जागना और चेहरे पर मारना…