तनाव में जीती स्त्री : शुचि मिश्रा | कविता | ShuchiMishraJaunpur

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तनाव में जीती स्त्री के चेहरे से
उसका कोमल भाव बदल जाता है कठोरता में
वह खतरनाक होती है
ख़ुद लिए भी और खुदा के लिए भी
उसके कानों में सुनाई पड़ता है
जब तब एक मुहावरा कि
खुदा के लिए ऐसा मत करो वैसा मत करो

भरी-पूरी साबुत दिखती है ‘ममी’ की तरह
या कि पोस्टमार्टम के बाद सिली गई लाश
भीतर से टुकड़ों-टुकडों में बँटी
बेटी, बहन, प्रेयसी,पत्नी, माँ कितने ही नाम
अपने ही नाम की तलाश में
अपने ही विरोध में खड़ी होती है प्रतिद्वंद्वी बन

तनाव में जीती स्त्री
जब गमले में पानी देती है तो बाहर आ जाती है मिट्टी
रोटी की गोलाई में आता है फ़र्क़ रोटी बेलते हुए
पतीली उतारते गैस से जला लेती है हाथ
बहुत गंदे धुले कपड़ों पर
ध्यान नहीं जाता तनाव में जीती स्त्री का

तनाव में जीती स्त्री भूगोल की दहलीज़ पर खड़ी
भविष्य को देखती है अपने भूत को जकड़े हुए

तनाव जीती स्त्री तनाव के कारणों पर नहीं सोचती
वह सब कुछ सोचती है तनाव के अलावा
धीरे-धीरे तनाव में उसे रस आने लगता है

तनाव में जीती स्त्री का नाम
कुछ भी हो सकता है
चाहे उसे जनता कहो या सरकार।

————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-

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