मुमकिन : शुचि मिश्रा | कविता | ShuchiMishraJaunpur

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एक गहरी रात
निस्तब्ध अंधेरा
उलझी अंगुलियाँ
अनकही बात

एक गहरी रात
मुंदी आँखें
काँपते अधर
ठिठुरते गात

एक गहरी रात को
आकृति देती
दो परछाई

दूर-दूर
बहुत दूर से
करीब आई

शक्लें पहचानी
जब देखी
अतल गहराई

रात की शक्ल
मुमकिन है
पहचानना
दो चेहरों में।

————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-

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