भीतर आऊँ या न आऊँ? भ्रमित-सी हो गई हूँ
मैं तुम्हारी देहरी पर बावरी-सी हो गई हूँ।
खींच लाई पीर जो मुझको तुम्हारे पास सहसा
पीर वह अब लाज बनकर रोकती है पंथ मेरा।
रात जो काटी तुम्हारी याद में जग कर अंधेरी
क्या कहूँ कि बात क्या है? डस रहा है अब सबेरा।
इससे पहले इस तरह की वेदना मन में नहीं थी
हो गई हूँ पूर्ण; मैं कुछ-कुछ नहीं-सी हो गई हूं।।
एक तुम हो जो अधूरे प्यार को ले जी रहे हो
जैसे शिव शव ले सती का घूमते थे इस जगत में।
एक मैं हूँ जो नदी की धार सीधी और उल्टी
आगे बढ़ती,लौटती हूँ; सोचती- तुम किस जगत में ?
तुम समय के चक्र जैसे चल रहे अपने वलय में
मैं नदी-सी बहते-बहते, अब सदी-सी हो गई।
मित्र, जो तुमने दिखाया बस वही पाथेय होगा
मांग में अब भर लिया है विरह का सिंदूर मैंने।
मैं सदी की उम्र लेकर क्या करूँगी इस जगत में?
साथ में दो पल जिए! हाँ, जी लिया भरपूर मैंने।
ज़िंदगी के इस सफ़र में साथ हो या न रहो तुम
मैं तुम्हारे भाव की अनुगामिनी-सी हो गई हूँ।
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-