मुझमें वितृष्णा होती तो मैंने
नफ़रत की होती आपसे
बारहा लफ़्ज़ों के जरिए
ज़रूरी तौर पर भी
किंतु मुझे प्यार है आपसे
और मेरे प्यार ने पाया
कि हर एक वाक्य
गड्ड-मड्ड है और ना-भरोसेमंद
प्रीत यह तुम
मौन में नहीं सुनना चाहते
किंतु यह इतने अंतस से आ रही
जैसे आग का सैलाब
नाकामयाब और लर्जिश
गले और छाती तक पहुँचते-पहुँचते
तालाब सरहद तोड़ने तक लबालब है
मैं आपको लगती हूँ बसंत में पतझड़ जैसी
मेरी मनहूस ख़ामोशी से है यह सब
और बदतर है मेरी मौत से भी !
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-