पर्याप्त-अपर्याप्त, स्वादिष्ट और स्वादहीन
जो भी है जनता की रोटी है न्याय
दुर्लभ होती है जब; भूख होती है तब चहुँओर
जब स्वादहीन होती है तब फैलती है असंतुष्टि
कूड़े में डाल दो व्यर्थ के न्याय को
जो न प्रेम से भूना, न समझदारी से गूँथा गया
गंधहीन, पपड़ाया और धूमिल न्याय
बासे व्यंजन-सा जो देरी से मिला हो
स्वादिष्ट और भरपूर रोटी मिले तो
शेष व्यंजन पर विचार नहीं किया जाएगा
कोई भी तृप्त हो सकता है इनसे
न्याय-रोटी से मिलता है ऐसा काम
जो हो यथेष्ट या कहें कि पर्याप्त
आवश्यक होती है रोटी हर रोज़ इस भाँति
बल्कि दिन में कई मर्तबा
भोर से देर रात्रि तक
कामकाज का लेते हुए आनंद
अच्छे-बुरे और सुख-दुख भरे दिनों में
हर दिन चाहिए पौष्टिक; न्याय की रोटी
इतनी अहमियत है न्याय की रोटी की
अब सवाल उठता है कि कौन बनाएगा इसे?
बतलाइए कि दूसरी रोटी कौन पकाता है ?
दूसरी रोटी की भाँति न्याय की रोटी भी
पकाएगी जनता ही
जो सबके लिए पौष्टिक होगी
और सबको प्रत्येक दिन मिलेगी !
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-