जैसे पूरे ब्रह्मांड में एक सुराख़ खोजना हो
जो किसी को न हो पता; ऐसा दरवाज़ा
और खुल जाए वह लगते ही अंदाज़ा
कि उसमें करें प्रवेश रेंगते हुए
पहुँच जाएँ एक छोटे-से कस्बे में
पार करें केश-कर्तनालय
दवा खरीदनेवाले
बैंक और परचून की दुकान
गाँव के किनारे अनाज से लदी गाड़ियाँ
संभवतः दीख पड़े जहाँ
सफ़ेद-झक़्क मकानों की कतार
अपने बरामदे में बैठे हों नागरिक
जैसे बाट जोह रहे हो तुम्हारी
तुम्हें देखते ही जो हाथ हिलाएँ
और कुछ अस्फुट-सा बुदबुदाएँ
कि आइए, कुछ वक़्त बिताइए
उन्हें जिज्ञासा है कि इस
नींद के पहले क्या करते थे तुम
और नींद टूटने के बाद
क्या है तुम्हारी कार्य-पद्धति
वे रीझते हैं तुम्हारी इन्हीं बातों से
इस गाँव का परम-धरम निद्रा है
महंतों-सी प्रतिमूर्ति है चहुँओर यहाँ
रविवार को वे जाते हैं चर्च के भीतर
अपने तकिए और कंबल लिये
निद्रालीन अपने ईश्वर को पूजने
यह गाँव एक जगह है ऐसी
इसे छोड़ते तुम्हें होगी बहुत शर्मिंदगी !
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-