एकात्म | कविता | शुचि मिश्रा | #ShuchiMishraJaunpur

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किसी भी दिन को याद किया
तुम्हारा स्मरण हो आया
गुनगुनाया कोई भी राग वह प्रेमराग हुआ
गाया जो भी गीत, हुआ प्रेमगीत

कोई भी तट या तरु तले बितायी शाम
हो गयी वह तुम्हारे नाम
लौटे जब बोझिल क़दम घर
तुम्हारे साथ घर मिला प्रतीक्षारत

जब भी छुआ जल, हवा या धूप को
तुम्हारी छुअन महसूस हुई

कौन कहता है कि तुम साथ नहीं
ओ मेरे आत्म!
यह द्‍वैत से अद्वैत की यात्रा तय हुई।

(शुचि मिश्रा)

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