ओ कवि,
कभी सुना है तुमने !
कि मछलियों ने
झपकायीं पलकें
ओ कवि !
नींद पर लिखी
तुमने ढेरों कविताएं
कभी उस जाल
या कांटे के जगार पर लिखो
जिसके भय से सो न पायीं मछलियां
जागता रहा समुद्र
जागती रहीं नदियां
और बेचैन रही मछलियां
ओ कवि !
तुम्हें जाल के संग
खड़े होना था
तो रश्मियों के जाल के पक्ष में
खड़े होते
जिसे समेटकर
रोज़ सूर्य चला जाता है अस्ताचल को
नई भोर लिये आता है फिर-फिर
ओ कवि !
तुम मछलियों के अनिद्रा पर
यूं न सिसकते
यूं ना रोते।
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-