आओ दु:ख के दुर्ग को ढँहाकर आओ
अश्रुओं से बना है यह दुर्ग
जिसमें रह रही हूँ इन दिनों
यूँ देखने में भव्य है यह दुर्ग
चाक-चौबंद, रोशनी से जगमग
मुख्य द्वार पर सैनिक तैनात हैं आहों के
सिसकियों के गलीचों पर चलकर आना है तुम्हें
आओ देखो कि मैं
करूणा के सिंहासन पर बैठी
किस तरह आतुर हूँ… और प्रतीक्षारत !
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-