आओ : शुचि मिश्रा | कविता | ShuchiMishraJaunpur
आओ दु:ख के दुर्ग को ढँहाकर आओअश्रुओं से बना है यह दुर्गजिसमें रह रही हूँ इन दिनों यूँ देखने में…
Poetry/ Writer, Jaunpur (U.P)
आओ दु:ख के दुर्ग को ढँहाकर आओअश्रुओं से बना है यह दुर्गजिसमें रह रही हूँ इन दिनों यूँ देखने में…
मिलो, जैसे मिलना ही चाहा होऔर मिलने के लिए आए हो दुनिया में नदी,पर्वत, हवा, धूप, बादल सेफूल-पत्ती, चिड़िया और…
वह अपने भीतर अलख जगाए हैं साहस कावह साहसिक बातें करता है मित्रों सेनैराश्य की छाया भी नहीं छू पाती…
खिड़की दरवाजे़ बंद हो गएस्तब्ध रह गए लोगकुछ झाँकने लगे बगलेंहकला गए निर्बाध धाराप्रवाह बोलने वाले बस एक सच गुज़रा…
देखते ही देखतेउमड़ घुमड़ कर आते बादलछा गए ऊपर देखते ही देखतेबरस गया पानीतृप्त हुई धरा देखते ही देखतेअंकुरित हुए…
जिसकी सफलता परऔर सफलता परपेट पकड़-पकड़ कर हँसे उसने ही सिखाया किअगर वह सफल हो जाएतो नागवार गुजरती हैदर्शकों को…
बहुत प्रभाव है उसकालगभग आतंक की शक़्ल में वह गुज़र रहा है सड़क सेकि गुज़र कर भी वहगुज़र न सकेगारह…
आज फिरबंद किए हृदय-द्वार आज फिरविमुख हुआ मनसूना रह गया आँगन झरा अभी-अभीपीपल-पातरह गईसंध्या की अधूरीनिशा से बात आज फिररह…
समय सांझ कासुंदर दृश्य ! एक वृद्ध टहलतेघर की ओर लौटते …वृद्ध की उंगलियां थामेनन्हा पोता चल रहा है कौन-किसे…
टीस जोदिल में उट्ठीरह गयीगंग-जमुनआँखों में आयीबह गयी रह गयीबह गयीयाद आतीऔर आते रह गयी हार बैठीसारी भाषाकहते-कहते दास्तां जोअनकही…