ओ मेरे बिरले मन ! : शुचि मिश्रा | कविता | ShuchiMishraJaunpur

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एक नदी दूसरी नदी से मिली
और जा मिली सागर में
एक हवा का झोका दूसरे से मिला
और बादल ले उड़ा
एक सुगंध मिली दूसरी सुगंधि से
और महक उठा घर आँगन
एक लौ दूसरी लौ से मिली
और फैल गया प्रकाश चहुँदिश

यहाँ एक ने दूसरे से नाम नहीं पूछा
यहाँ दूसरे ने पहले को गौत्र नहीं बताया

मुझे मिलना है इसीतरह तुमसे
बगैर नाम और गौत्र के

ओ मेरे बिरले मन!
यह निरा सूफीयाना
ख़याल समझ मेरा।

————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-

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