जब आने पर लिखी हैं
बहुत से कवियों ने कविताएं
तब क्या मुझे
तुम्हारे आने पर नहीं लिखना चाहिए
मेरे ‘आना’ लिखने के पहले ही
चले आते हैं स्वप्न
और कहते हैं लोग
कि पूरे नहीं होते हैं सपने
खा़सकर वे जो देखे गये दिन में
मन में
रखी हैं वर्जनाएँ, संकोच जो
उन्हें धता बता कर आना ही होगा
दिनों को बदल, रितु को दोहराते
मौसमों में ढलते हुए
आना ही है भुलावे-छलावे की तरह
जब किसी नाम की धुरी ढल जाए प्रेम में
और इच्छाएं रंगीन हों
तब सभी को गड्ड-मड्ड कर
घुमाने पर जोर से
सिर्फ एक ही रंग रह जाए श्वेत
ओ कृष्णा, ओ बनवारी,
ओ कान्हा, ओ मोहन, ओ नटनागर!
तब आना तुम अपनी काली कमली लेकर
लिखने सुफैद पर इबारत
कि एक तुम्हारे रंग के बाद
नहीं चढ़ता कोई रंग
मेरी द्वंद, मेरे छंद में
किसी पंक्ति की तरह आना
जिस की प्रतीक्षा में रहती है कविता
कि मैं तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ।
( शुचि मिश्रा)