जो असंभव था
संभव हुआ लगभग
कि रात की नदी
मौन साधे बह गई
आया दबे पाँव सूरज
खबर ही न हुई
दिन के पसर जाने की
रश्मियाँ कोहरे से छनकर आती
जल निर्मल करती रही
यह था एक उदास दिन
जो अपने खालीपन के साथ
दाख़िल हुआ ज़िंदगी में
गहरे अंतराल
और एकाकीपन को पाटते हुए
जीती रही मैं
तुम्हारे उल्लेख के साथ
इस दिन का पल पल
मैंने जाना कि कैसे
समय के खाली कश्कोल को
भर देता है उल्लेखनीय।
(शुचि मिश्रा)