उसकी चुप्पी मुग्ध करती है और भयभीत भी
इस चुप्पी के पीछे मिट जाने का माद्दा है
विवशता है, परंपरा है और रीत भी
इस चुप्पी में कितनी कातरता और आर्तनाद है
कुबोल हैं सास-ससुर और ननद के
ससुराल में लमझना बने ननदोई की कुदृष्टि
लांछन भरे ताने हैं घर भर के
और स्वयं ‘उनका’ कोप
एक झुंझलाहट भरी मिथ्या उलाहना
यह सब सहनशक्ति के बाहर है अब
सुनो भाई, वह अपनी चुप्पी को तोड़ना चाहती है
इस चुप्पी में कितने ही बिना नाम वाले चेहरे हैं
दासता से भरी दास्तानें हैं जो ख़त्म नहीं होतीं
ये चुप्पी कितना कुछ कहती है अंतहीन पीड़ा-सी
अपने अभागेपन को जार-जार रोती
इस चुप्पी में गाँव के किनारे जैसे
इकलौते मंदिर की घंटा-ध्वनि गूंजती है
इस चुप्पी में एक प्रार्थना है जो
अपने आराध्य तक पहुँचते-पहुँचते लौट आती है !
————–( शुचि मिश्रा, जौनपुर ) ———————-